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पापा की परी लिव्या - एक ऐसे परिवार की कहानी जिनकी बेटी जन्म से ही सुन सकने में असमर्थ थी - Real Story In Hindi - Storykunj

यह बात उस समय की है जब अनिल और  रिचा की पहली संतान लिव्या का जन्म हुआ था। नन्ही परी को पाकर घर में सभी बहुत खुश थे।
दादा दादी, ताऊ-ताई और बच्चों से भरा पूरा परिवार होने के कारण लिव्या को गोद खिलाने वालों की कमी ना थी। लिव्या कब डेढ़ वर्ष की हो गई पता ही नहीं चला।

 रिचा अपने भतीजे के नामकरण पर लिव्या को लेकर मायके गई हुई थी। काफी दिनों बाद मायके आई थी इसलिए मां पापा ने हफ्ते भर के लिए रिचा को अपने पास ही रोक लिया था।

  शाम के समय परिवार के सभी सदस्यों के बीच हंसी मजाक का माहौल था। साथ ही टीवी भी चल रहा था। सोफे पर बैठी हुई लिव्या पास पड़े खिलौने से खेल रही थी। इसी बीच उसके नानाजी ने नोटिस किया कि लिव्या का किसी भी प्रकार की आवाज या म्यूजिक की तरफ ध्यान नहीं जा रहा है।

उन्हें कुछ शक हुआ तो उन्होंने लिव्या का ध्यान काफी तेज म्यूजिक चलाकर उस ओर खींचने की कोशिश की। लेकिन लिव्या ने उस तरफ गर्दन भी नहीं घुमाई। अब उनका शक और बढ़ गया कि जरूर कहीं कुछ कमी है।

 उन्होंने परिवार को इस बारे में बताया और अगले ही दिन डॉक्टर को दिखाया। तो शक यकीन में बदल गया।  डॉक्टर ने बताया कि बच्ची सुन नहीं सकती।


 डॉक्टर की बात सुनकर सब बहुत चिंतित थे बच्ची के पूरे जीवन का सवाल था, कैसे कटेगा? अपनी प्यारी गुड़िया की चिंता में रिचा की तो भूख प्यास ही मर गई।

 अगले ही दिन अनिल रिचा को लेने आ गया। रिचा वापस ससुराल आई तो सबके चेहरों पर चिंता की लकीरें थी। तभी रिचा की सासू मां ने सबको हिम्मत बंधाते हुए दिल्ली के एम्स में दिखाने का फैसला लिया।

 अनिल, रिचा और मां तीनों बच्ची को लेकर  दिल्ली पहुंचे। वहां एम्स के डॉक्टर को दिखाया तो जांच कराने पर पता चला कि लिव्या की सुनने की क्षमता 90 परसेंट नहीं है। अब तो बच्ची के फ्यूचर के बारे में सोच कर सब की घबराहट और बढ़ गई । डॉक्टर ने कानों में सुनने वाली मशीन लगाने की सलाह दी। मशीन सवा लाख की थी। जैसे-तैसे पैसों का इंतजाम करके दोनों कानों में मशीन लगवाई । लेकिन मशीन लगवाने के बाद भी सुनने की क्षमता में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। लिव्या अब भी पहले के जैसे ही थी।

 इसके बाद उन्होंने उत्तराखंड के किच्छा शहर में सवा साल तक थेरेपी दिलवाई। यह थेरेपी कान की नसे खोलने के लिए थी। परंतु उससे भी कोई फायदा नहीं मिला। फिर उन्होंने काफी अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखाया। जो जहां बताता एक उम्मीद लेकर वे इलाज के लिए जाते। लेकिन स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही।

 समय बीत रहा था। लिव्या बड़ी हो रही थी। परिवार ने अपनी कुलदेवी के दर्शनों के लिए राजस्थान जाने का प्रोग्राम बनाया।

 अनिल, मां, पत्नी और बेटी को लेकर राजस्थान जाने के लिए निकल पड़े। रात 9:00 बजे रुद्रपुर से ट्रेन पकड़ी। सुबह 4:00 बजे दिल्ली पहुंच गए
। दिल्ली से रेवाड़ी जाने वाली ट्रेन में बैठे। जैसे ही ट्रेन रवाना हुई। तभी एक आदमी रिचा के हाथ से पर्स छीन कर चलती हुई ट्रेन से कूद कर भाग गया। ट्रेन स्पीड पकड़ चुकी थी। इसलिए उनके पास शिवाय चिल्लाने के और कोई रास्ता ना था। पर्स में मोबाइल, रुपए, ए टी एम कार्ड, घड़ी, आधार कार्ड  के अलावा लिव्या के कानों की मशीन भी थी। फौरन अनिल ने बड़े भाई को फोन किया । उस दिन अनिल की जेब में जो पैसे थे, उनसे वे लोग कुल देवी के दर्शन करके वापस अपने घर उत्तराखंड लौट आए। दिल बहुत उदास था । बड़ी मुश्किल से लिव्या की मशीन खरीद पाए थे। अब दोबारा खरीदने के लिए पैसों का बंदोबस्त करना था।

 एक हफ्ते बाद एक अनजान नंबर से एक कॉल आई। फोन कॉल करने वाले ने बताया कि मैं एक टेंपो ड्राइवर हूं । मुझे रेलवे स्टेशन के नजदीक झाड़ियों में आपका पर्स में पड़ा मिला। उसमें कानों की मशीन और आधार कार्ड था । मैंने दोनों चीजें कोरियर करवा दी हैं, आपको मिल जाएंगी।

रिचा के सास कहने लगी बच्चे की मशीन सबसे कीमती थी हमारे लिए, वही मिल जाए। भले ही वह व्यक्ति वही चोर हो जो पर्स छीनकर भागा था, मैं नहीं जानती। लेकिन चोरों में भी इंसानियत है।
यह सोच खुद को तसल्ली दी।
  अगले दिन उन्हें कोरियर मिल गया।

 सुनने में कमी की वजह से लिव्या ने बोलना भी नहीं सीखा था। परंतु उम्मीदों पर दुनिया कायम है । परिवार ने उम्मीदें नहीं टूटने दी।

 वे  शाहजहांपुर ( यूपी ) में बोलने की थेरेपी दिलाने के लिए गए। वहां पर भी कुछ खास आराम ना मिला। तभी वहां पर पता चला कि एक किसी भाई ने अपनी बेटी का कानपुर मल्होत्रा ईएनटी हॉस्पिटल में ऑपरेशन करवाया है। ऑपरेशन के बाद 1 साल स्पीच थेरेपी लेना जरूरी है। उनकी बच्ची को 6 महीने हो चुके थे ऑपरेशन करवाए हुए। वह काफी हद तक ठीक हो चुकी थी। तभी उनसे एड्रेस लेकर अनिल का परिवार भी वहां गया और लिव्या का ऑपरेशन करवाया ।



15 दिन बाद से थेरेपी शुरू होनी थी वह कानपुर में किराए पर रूम सेट लेकर रहने लगे। थेरेपी को चलते हुए अभी पौने 2 महीने ही हुए थे कि कोरोना शुरू हो गया और वापस घर आना पड़ा। अब घर पर ही डॉक्टर के बताए अनुसार कोशिश करते रहे।

 कुछ महीनों बाद कोरोना कम हुआ। तब दोबारा कानपुर पहुंचे और 4 महीने रहे। इसके बाद फिर से कोरोना बहुत बढ़ गया और फिर वापस घर आ गए । इस प्रकार आते-जाते रहे और थेरेपी पूरी करवाई।

 फ्रेंड्स स्टोरी लिखने तक परिवार द्वारा बताए अनुसार तकरीबन अब बच्ची 70 परसेंट ठीक है। अब वह सुन सकती है और काफी शब्द बोल लेती है। अभी वह मात्र 5 वर्ष की है।

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