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समाज की सोच - Short Story In Hindi - Storykunj


 दोपहर तक के घर के कामों से फुर्सत मिलने पर सिलाई मशीन लिए बैठी सुधा बैग की चैन सही करने की कोशिश करते हुए बड़बडाये जा रही थी। 
 आजकल हर चीज में तो चैन लग कर आने लगी है।  पिलोकवर, रजाई गद्दे के कवर, हैंडबैग,  स्कूल बैग, पहनने वाली ड्रेस, यहां तक कि सूटकेस में भी चैन ही लगी होती है। कभी कपड़ों की चैन खराब तो कभी बच्चों के स्कूल बैग की। 

यह सब आम बात है। 

उफ़ ये बैग की चैन तो किसी काम की नहीं रही। ऊपर से यह मशीन भी बार बार धागा तोड़ देती है। 

पता नहीं वो डब्बू बैग इत्यादि की चैन सही करने वाला कहाँ चला गया।
हर महीने आया करता था। 
तो कालोनी भर के लोगों के कपड़ों की खराब चैन रिपेयर कर जाता था। 
वो भी सिर्फ चंद पैसों में।

 डब्बू एक खराब ज़िप सही करने वाला, यही कोई 24-25 साल का एक युवक था।
बहुत ही मेहनती और मृदुभाषी। 
चेहरे पे उसके हमेशा पसीने की बूंदे झिलमिलाती रहती। 
लेकिन साथ ही मुस्कुराहट भी खिली रहती।
जब कभी वो कालोनी में आता तो गली-गली घूमते हुए "चैन सही करा लो" की आवाज लगाता। 

इसी बहाने कालोनी की महिलाये वहां इकठ्ठा हो के आपस में बाते किया करती।
 
जब वह अपने बैग से मेटल अथवा धातु के ज़िप निकाल कर बैग या ड्रेस में लगा दिया करता था। 
फिर वो बड़े ध्यान से उलट पुलट कर कपड़े की ज़िप को खोल-बंद करके चेक करता और संतुष्ट हो के कहता। 

"लो मेंमसाब मैंने बैग में मेटल की ज़िप लगा दी है।  अब यह बिलकुल नए जैसा हो गया।  जल्दी खराब भी नहीं होगी। 

अगर कोई उसे 15 मांगने पर 10 रूपये ही दे देता। 
तो भी वो बिना कोई प्रतिवाद किये चुपचाप जेब में रख लेता। 
 
सुधा ने अपने सात साल के बेटे रेयांश को आवाज लगाई...... 
" रेयांश बेटे पापा को बोलो कल ऑफिस में दूसरा बैग ले जाए"। 
पता नहीं ये डब्बू कितने दिन बाद कॉलोनी में आएगा।
थोड़ी देर बाद जब रेयांश बाहर से खेलकूद कर वापस लौटा। 
तो उसने बताया कि उसने डब्बू को अभी कॉलोनी में आया हुआ देखा है।
 
सुधा ने जल्दी से अपने चैन रिपेयर कराने वाले कपड़े इकट्ठे किए और बाहर निकल पड़ी।
बाहर जाके उसने जो देखा वो उसे आश्चर्य से भर देने वाला दृश्य था।

 सुधा देखती है कि डब्बू अपने वर्किंग बैग के बजाय  एक अपाहिज हुए भिखारी की छोटी सी लकड़ी की गाडी को धकेल के ला रहा है और उस पर बैठा हुआ भिखारी हाथ फैला कर भीख मांग रहा है। 
उसके आगे भीख का कटोरा रखा हुआ है।
और लोग उसमे पैसे डाल देते थे।

पास आने पर सुधा ने बड़ी उत्सुकता से डब्बू से पुछा....
 डब्बू ये क्या ?? और तुम्हारा वह काम ??
 डब्बू ने थोड़ा नजदीक आके धीरे से फुसफुसाते हुए स्वर में कहा......
"मेंमसाब सारे दिन गली-गली घूमकर मेहनत करने के बाद मुझे मुश्किल से सौ - सवा सौ रुपये मिलते थे और कभी-कभी तो इतने भी नहीं बन पाते थे। 
ये भिखारी अपना ठेला खींचने का ही मुझे डेढ़ सौ दे देता है।
इसलिए मैंने अपना पुराना वाला काम बंद कर दिया।




 डब्बू की बात सुनकर सुधा हैरान रह गई। वह डब्बू को दूर तक भिखारी की ठेला गाडी ले जाते हुए देखती रही । उसके दिमाग में अनेकों बातें चलने लगी.......

 जरा सोचिए कि काम छोटा हुआ है या हमारी सोच। हम अनायास एक भिखारी को तो उसकी आवश्यकता से अधिक पैसे दे देते हैं।  लेकिन एक श्रमिक को उसके श्रम का वह उचित मूल्य भी देने में संकोच करने लगते हैं जिससे समाज में उसके श्रम की यथोचित उपयोगिता बनी रहे। 
 एक अच्छा भला मेहनतकश व्यक्ति जो कल तक किसी सृजनात्मक कार्य से जुड़ा हुआ था और इस समाज को अपना योगदान दे रहा था आज हमारे ही सामाजिक व्यवस्था द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया।

 हम कहेंगे कि दिन-प्रतिदिन इंसान की महत्वाकांक्षा बढ़ती है। समाज भी इसके लिए उत्तरदायी है। परंतु समाज किससे है ? समाज तो आप, मैं,हम सभी से बना है। 

 विचार कीजिए जिससे श्रमिक की खुद्दारी और    हमारी मानवता दोनों ही शर्मिंदा होने से बच सकें । और डब्बू जैसे मेहनतकश व्यक्ति अपने सृजनात्मक कार्य से जुड़े रहे। 

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